क़ुरआन की जानिब हमारी सोच!
दौर ए हाज़िर में क़ुरआन का मकसद क्या है?
• तावीज़ बनाकर लटकाना
• क़ुरआन खा़नी करना
• उसकी क़सम खाना
• मय्यत के लिए तिलावत करना
• इसकी आयतों को दीवार पे सजाना
• रुक्सती के वक़्त सर के ऊपर से गुजा़रना
• नई दुकान हो या घर में शादी एक बार बरकत के लिए पढ़ना
• कु़ल हो , चालिस्वा हो या फिर बरसी तब इसको खोलना; वगैरह वगैरह!
मतलब कहने का ये है की ये किताब हिदायत और इंसानी मकसद समझने के आलावा सब चीजों के लिए इस्तेमाल कर ली जाती है।
दुनिया का हर एक मुसलमान क़ुरआन को सबसे ज़्यादा ज़रूरी किताब समझता है लेकिन उसके बावजूद हम कभी भी क़ुरआन को तवज्जो नहीं देते। ग़ौर करने वाली बात है कि पूरी इंसानियत को जगाने वाली किताब को पढ़ते वक़्त हमें नींद आने लगती है। हमारे यहां किसी बच्चे का क़ुरआन से मुलाक़ात ऐसे होता है जैसे हमारा तब्लीग़ी जमात से। बस किसी तरह पीछा छुड़ाना है। आज कल के मां बाप को ये लगता है कि बच्चे को बस किसी तरह से एक बार क़ुरआन मुकम्मल करवा दिया जाए और फिर एक ख़त्मे क़ुरआन पर क़ुरआन खा़नी करा ली जाए उसके बाद तो फिर बच्चा सलफ़ उस सालिहीन में शुमार हो जाएगा। मतलब आप ख़ुद ही सोचिए इतनी आला दर्जे की किताब की हैसियत यही है कि बस एक बार बच्चा पढ़ ले उसके बाद इसपर ताउम्र अमल करे चाहे ना करे अब वो सर्टिफा़इड मुसलमान है। हमारे ख़ुद के तस्सवुर में भी क़ुरआन ऐसी किताब है जिसको हमें ज़बरदस्ती मार पीट कर पढ़ाया गया और हम चाहते थे कि बस किसी तरह इससे पीछा छूटे और हमें ऐसी किताब को पढ़ना ही नहीं जो हमें समझ में नहीं आती और जिसकी वजह से हमें मार पड़ती हो।
जब बचपन से मां बाप का क़ुरआन को लेकर अप्रोच ऐसा रहेगा और बच्चे का एक्सपीरियंस क़ुरआन से पीछा छुड़ाने का रहेगा तब मुस्तक़बिल में हमें सूदखो़र, ज़िनाकार, फासिक़, और नाअहल लोग ही मिलेंगे। हमारे ऐतराफ़ में ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने बचपन में क़ुरआन "पढ़ा" लेकिन आज वो दीन से फ़ारिग हैं मतलब कि वो इल्हाद या फिर कोई और लादीनी फ़लसफे़ को अपना चुके हैं। इसकी वजह ये है कि हमारा कभी भी क़ुरआन से सही तारूफ़ ही नहीं कराया गया। इसकी तिलावत करने को लोग पढ़ना समझते हैं। आप ज़िंदगी भर रात दिन या सिर्फ़ रमज़ान के मौसम में ही तिलावत करते रहिए इस उम्मीद से की एक हर्फ़ दस नेकी के बराबर है लेकिन अगर आप उस बेनमाज़ियों की जहन्नुम में जाने वाली आयात और सूद लेना अल्लाह और उसके रसूल के साथ जंग करने के बराबर है को पढ़ कर नहीं समझ पाए और उस पर अमल नहीं किया तो आगे आप ख़ुद समझदार हैं।
एक और बात यह है आज के वक़्त में दुनिया के कई ऐसे यूनिवर्सिटीज़ हैं जो कु़रानिक स्टडीज़ में आपको महारत हासिल करवाती हैं जिसमें ग़ैर मुसलमानों कि तादाद ज़्यादा है। और कुछ ऐसे भी काफ़िर हैं जिन्होंने क़ुरआन पे पूरी थीसिस ही की है क़ुरआन को ग़लत साबित करने के लिए। मतलब कि एक काफ़िर अपने कुफ्ऱ को पुख़्ता करने के लिए इतना मेहनत करता है लेकिन मुसलमानों में यही हाए तौबा मची है कि वज़ू के बिना क़ुरआन छूएं या ना छुएं।
अंग्रेज़ी , हिंदी और उर्दू में क़ुरआन का तर्जुमा |
हम सब अजमी हैं और हमें अरबी नहीं समझ आती लेकिन हमें उर्दू, अंग्रेज़ी और हिंदी में से एक ज़ुबान तो ज़रूर समझ आती होगी। दुनिया के लगभग हर ज़ुबान में क़ुरआन का तर्जुमा मौजूद है लेकिन हमारा क़ुरआन से बचपन से ही रिश्ता क़ुरआन खा़नी तक ही है तब हम ख़ाक इसका तर्जुमा पढ़ने वाले हैं। बदक़िस्मती की बात है कि हमारी अक्सरियत तर्जुमा तक नहीं पढ़ती, अरबी सीख कर क़ुरआन समझना तो एक सपने जैसा है।
असल में ये तर्जुमा वगै़रा तो सानवी दर्जे की चीज़ है। असली लज्ज़त तो इसको अरबी में ही पढ़कर समझने में है। हमें अभी तक बात समझ नहीं आती कि हमें बचपन में उर्दू लैंग्वेज क्यूं पढ़ाया जाता है। एक बच्चे का दिमाग डेवेलपिंग फे़ज़ में होता है, वो कोई भी ज़ुबान अच्छे से और आसानी से सीख सकता है। बेहतर तो ये होगा कि बच्चों को शुरुआत से ही अरबी की तालीम दी जाए ताकि आगे वो जब भी क़ुरआन पढ़े तब डायरेक्ट उसको समझे और किसी तर्जुमे के मोहताज ना रहे। और अरबी सीखने से दीनी तालीम के प्राइमरी सोर्सेज़ में एक बहुत बड़ा अय्याम खुल जाता है, क्यु़की तारीखी़ , फ़िक़्ही, उलूमी और हदीस की किताबों का बेशुमार ज़ख़ीरा अरबी में मौजूद है।
क़ुरआन से दूरी का भी क्रेडिट मौलवी साहेबान को ही मिलता है क्यु़की क़ुरआन का प्लेसमेंट क़ुरआन खा़नी, मिलाद , और मरनी में इन्होंने ही करवाया। अब बदलाव वो लोग नहीं लाने वाले हैं जो ए.सी वाले कमरे में बैठकर अपने बच्चों को अब्रॉड भेजने की बातें करते हैं। बदलाव वही लोग ला सकते है जिनके सिर पर बर्बादी का बोझ डाला गया है बाकी तो अपनी नाअहली को छुपाने के लिए मौलवी पर तनकीद करते रहते हैं।
क़ुरआन एक ज़िंदा मौजिजा़ है लेकिन इसको मुर्दों के लिए पढ़ कर इसके मकसद को मुर्दा कर दिया गया है। ज़रूरत है क़ुरआनईज़ेशन करने की, मतलब कि क़ुरआन पढ़ने और समझने और इसके अज़ीम मकसद को इतना आम किया जाए कि मुसलमान तो क्या ग़ैर मुसलमान भी इसकी बात से महरूम न रहे, ऐसे ही क़ुरआन के हुदल्लिन्नास वाली बात का़यम होगी। और अल्लाह के रसूल का भी कौल है कि तुम में बेहतर वो है जो क़ुरआन सीखे और दूसरों को सिखाए । लिहाज़ा अपने आप से वायदा करें की आपके दिमाग में जो भी तस्वीर क़ुरआन कि बचपन से बनाई गई है उसको क़ुरआन पढ़कर और समझकर आप तब्दील करेंगे।
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