रमज़ान का किस्सा
आख़िरकार दो साल बाद रमज़ान की रौनक देखने को मिलेगी। गली मोहल्लों में इफ़्तारी और तरावीह के बाद शीर चाई के साथ इसपर चर्चा होगी कि इस बार तो ईद में भाई की फ़िल्म सिनेमा हॉल में ज़रूर देखना है। लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि इस ईद भाई की फ़िल्म ही नहीं आ रही।
कुछ नौजवानों को 1 महीने का ब्रेक लेना पड़ता है अपने प्रेम प्रसंगों से, सुट्टेबाजी़ से, गाना सुनने से, गाली बकने से, झूठ बोलने से, और ...... वगे़रा वगे़रा । ग़ैर करने वाली बात ये है कि ग़ैर रमज़ान इन सब चीज़ों की सुलझी हुए शरई दलील भी मार्केट में आपको मिलेगी। लेकिन फिर यही चीज़े अचानक से हराम हो जाती हैं पता नहीं क्यों? और कुछ बिचारे तो ऐसे भी हैं जो इन गुनाहों पे अमल करते रहते हैं ये सोचकर की रोज़ा रख रहा हूं, तरावीह पढ़ ही लेता हूं तो गुनाह और अच्छे अमल का बैलेंस बना रहेगा।
फ़ितरत का रीसेट बटन है ये महीना। इस महीने में अलग रूहानियत महसूस होती है जो ईद की नमाज़ तक रहती है और फिर 11 महीने के वेकेशन के बाद आती है। इस रूहानियत में हर दूसरे दिन इस्लामी स्टेटस लगते हैं, मग़रिबी वेब सीरीज़ और नेटफ्लिक्स को छोड़ कर नौजवान एर्तगुरुल देखने लगते हैं, कुछ लोग क़ुरआन "ख़त्म" करने की रेस लगाते हैं, कुछ इफ्त़ारी की दावतों के लिए निकलते हैं, कुछ शबे क़द्र में नाइट आउट के लिए निकलते हैं, कुछ ये सोचते हैं कि बस कुछ दिन और उसके बाद तो आराम से फ़िल्म देखेंगे, गाने सुनेंगे और भी कई दीगर रूहानियत के मसले हैं।
थोड़ी गुफ़्तगू तरावीह पर भी हो ही जाए। ये तरावीह की नमाज़ भी एक सामाजिक दबाव वाली चीज़ है, पढ़नी ही पड़ती है नहीं तो पड़ोस वाले फ़लाना साहब कहेंगे कि देखो कैसा आदमी है तरावीह भी नहीं पढ़ता। भले आप साल भर नमाज़ ना पढ़ें लेकिन तरावीह तो फ़र्ज़ से नीचे है ही नहीं। हमारे यहां तरावीह में भी रेंज है। आप कितने बिज़ी हैं उस हिसाब से 6 दिन, 7 दिन, 11 दिन, 13 दिन, 20 दिन वाली हॉलिडे पैकेजेस मौजूद हैं। और जो सबसे बेरोज़गार हैं वो तीसों दिन पढ़ लेते हैं। क्यूंकि शायद तरावीह पूरे महीने के लिए होनी थी लेकिन ये "बिज़ी" जनाबों के लिए मौलवियों ने डिस्काउंट कि सहूलियत रखी है। पूरी कुरआन पढ़ दी जाती है तरावीह में लेकिन हमारी आंखों में एक आंसू नहीं आते मतलब आप समझ लीजिए कि हम इस चीज़ की सच में कितनी फ़िक्र करते हैं या बस कल्चर के तौर पर कर लेते हैं।
और क़ुरआन के साथ जो नाइंसाफी इस महीने में होता है वो और किसी भी महीने में नहीं होता। मतलब पूरे साल तो मुसलमान इस किताब को हाथ नहीं लगाते और ग़लती से रमज़ान में लगाते हैं तो बस इस नियत से कि इसको जल्दी से जल्दी एक बार तिलावत करके रख दिया जाए। मतलब ये नहीं समझ में आता कि इस महीने में ये किताब पूरी इंसानियत के लिए नाज़िल हुई और ख़ुद आप इसपर मालिकाना हक़ जमाने वाले मुश्किल से एक बार तिलावत करके फ़िर कहीं ऊंची जगह पर रख देते हैं की साल भर कभी नज़र ही ना आए। अगर सच में मुसलमान इस किताब को जिस तरह रमज़ान में तरजीह देने की कोशिश करते है उसी तरह पूरे साल दें तो फिर ये क़ुरआन ख़त्म और जहालत का मसला ही ख़त्म हो जाए। क़ुरआन ग़ौर ओ फ़िक्र करने के लिए है। आप ख़ुद ही सोचिए अल्लाह केह रहे हैं कि अगर ये क़ुरआन किसी पहाड़ पर नाज़ील हुआ होता तो वो अल्लाह के डर से रेजा़ रेजा़ हो जाता। लेकिन क्या आपका दिल और दिमाग पहाड़ से भी सख़्त है कि क़ुरआन आपकी ज़िन्दगी में कोई असर नहीं करता?
आप लाख क़ुरआन की तिलावत करते रहिए, आपको ये कभी नहीं पता चलेगा कि आपने पूरी ज़िन्दगी अल्लाह और उसके रसूल के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर रखा था। ये महीना क्लासिक एग्जांपल है हमारी ना अहलि को आइना दिखाने के लिए की हम कितने कल्चरल मुसलमान हैं और कितने दीन परस्त मुसलमान हैं।
आख़िर में इतना ही कहूंगा कि एक दफ़ह क़ुरआन उठाइए और जो भी ज़ुबान आपको पढ़नी आती है उस तरजुमे में पढ़ें और अगर ये भी नहीं कर सकते तो क़ुरआन का तर्जुमा सुन तो सकते हैं। तो इस रमज़ान कल्चर और रिवाजों को पीछे छोड़ीये और इस्लाम के बारे में और मकसदे हयात के बारे में गौ़रो तफ़क्कुर कीजिए। ज़िन्दगी रमज़ान जैसी बनाइए आख़िरत ईद जैसी होगी। इंशाअल्लाह!
~ इब्ने जावेद
JazakAllah khair. Worth it to read n ponder over.
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