मुसलमानों की ईद



अल्लाह का शुक्र है कि उसने हमें रोज़ा रखने की कुव्वत दी और नमाज़ पढ़ने की आदत लगी। लेकिन ये बस एक महीने का लिबास था जो अब अगले साल रमज़ान में पहना जाएगा। दो साल बाद  नॉर्मल तरीके से रमज़ान हुआ लेकिन बिना किसी बदलाव के। मुसलमानों के ऊपर ज़ुल्म शदीद तरीके से हो रहा है लेकिन ना तो वो खु़द की कोई मदद कर पा रहे है और अल्लाह की मदद तलब करने के लिए जो बुनियादी चीज़ है वो ईद के बाद छोड़ने वाले हैं तो फिर खाते में रुसवाई ही आएगी।

ये रमज़ान वाले मुसलमानों ने मस्जिदों को टूरिस्ट स्पॉट बना रखा था। जैसे साल में एक बार छुट्टियों में लोग कहीं अच्छी जगह घूमने निकलते हैं उसी तरह मुसलमान भी पूरे जोश से 30 दिन तक मस्जिद को आबाद करता है फिर जैसे ही ईद की नमाज़ ख़त्म मस्जिद से मुसलमान ख़त्म। वही बिचारे गिने चुने बुज़ुर्ग जो साल भर नमाज़ पढ़ते हैं वही देखने को मिलेंगे। कुछ बिहेवियरल साइकोलॉजिस्ट कहते हैं कि किसी भी चीज़ की आदत लगने के लिए इंसान को 21 दिन का वक़्त लगता है। लेकिन ये मुसलमान कौ़म इतनी ढींट है कि इसको 30 दिन क्या, 2 महीने भी रमज़ान का महीना दे दिया जाए तो ये रमज़ान ख़त्म होते ही रोज़े के बाद नमाज़ छोड़ेगी। एक फ़र्ज़ के साथ दूसरा फ़र्ज़ भी ताख़्त पर। जो महापुरुष रमज़ान में लगभग सारी नमाजें पढ़ लिया करते थे वो अब बहाने देंगे की वक़्त नहीं मिलता, काम में मसरूफ़ हैं, थक जाते हैं, वगे़रा वगे़रा । तो ये चीजें रमज़ान में क्यों नहीं होती थीं? ख़ैर कोई नहीं रमज़ान में इतना दुआ और मग़फ़िरत तो स्टॉक करवा ही लिया होगा कि अगले साल तक का गुनाह का कोटा मैनेज हो जाएगा।

फिर आइए ईद और ईद के कपड़ों पर। ये अपने आप में अलग ही दुनिया है खासकर बहनों के लिए। उनके वजूद का मकसद दो ही दफ़ह पूरा होता है। एक, जब परिवार के किसी फ़र्द की शादी में कपड़ा पसंद करना हो और दूसरा ईद में 100 सेल्फ़ी लेने के बाद एक सेल्फ़ी पे 10 फ़िल्टर लगाकर उसको मंज़रे आम पर लाना। ईद पर नए कपड़े पहनने से ज़्यादा खुशी इस बात की होती है की रमज़ान में अपने ऊपर लगाई गई मज़हबी पाबंदियां अब ख़त्म हो जाएंगी।

और हां, क़ुरआन को कैसे भूल सकते हैं कि उसका क्या करना है। उसे लपेट लपाटकर छुपा देना है ताकि उसकी सख़्त तरीण बातें कहीं हमें हमारे मकसद से ना भटका दें। और जिनको बहुत ज़्यादा क़ुरआन से उल्फत है तो वो कु़रआन खा़नी तो कर ही लेते हैं साथ में क़ुरआन को लटकाने का भी ऑप्शन मौजूद है - तावीज़। जिस किताब में इतनी ताकत थी कि अपने दौर के अमेरिका और रशिया को पलट कर रख दिया था, आज उस किताब की ताक़त बस तावीज़ बना कर भूत भगाने तक महदूद कर दी गई। किताब की ताक़त में कोई कमी नहीं है बल्कि इस दौर में और ताक़तवर मालूम पड़ती है लेकिन बेगै़रतों ने मालिकाना हक जमा रखा है इसलिए आज के रोम और फा़रस नहीं फ़तेह हो पा रहे। 

अब शैतान आज़ाद है तो खुल कर जिएगा मुसलमान ताकि शैतान को आसानी से ब्लेम कर सकें। इस कल्चरल बीमारी का इलाज यही है कि आप इस्लाम को पार्ट टाइम जॉब समझना छोड़िए, क्यूंकि दोनों कश्ती में पाओं रखने से इंसान डूब जाता है। अगर आपने अभी तक क़ुरआन का तर्जुमा तक नहीं पढ़ा तो ऐसा नहीं हुआ है कि रमज़ान ख़त्म हो गया तो उसके बाद क़ुरआन नहीं पढ़ सकते। एक ही आयत रोज़ पढ़ें लेकिन पढ़ें। और इस उम्मीद में मत रहिए की एक दिन आपके साथ कोई मौजिजा होगा या फिर आपकी ज़िन्दगी में कोई टर्निंग प्वाइंट आएगा तब आप दीन को पकड़िएगा। सबके साथ ऐसा नहीं होता। जिस दिन आप बा शाऊर हो गए उस दिन से आप अपने लिए ज़िम्मेदार हो गए। ये मत सोचिए कि मौत से पहले या बुढ़ापे में आपको इलहाम अा जाएगा और आप मुत्तकी़ हो जाएंगे। इसलिए तो मौत का वक़्त किसी को नहीं पता। अगर पता होता तो मकसदे हयात ख़त्म हो जाता। इस रमज़ान क़ुरआन पढ़ने के बाद एक बात ज़रूर वाजे़ हुई कि हमारी जिंदगी और क़ुरआन के नरेटिव में आसमान ज़मीन का फ़र्क है। क़ुरआन पढ़ते हुए लगता है कि जैसा सीन चल रहा है बचने का कोई चांस ही नहीं है। हां, वक्त़िया तौर पे मौलाना तारिक जमील के बयानात सुनने से लग सकता है कि हमसे बड़ा कोई जन्नती नहीं। लेकिन क़ुरआन पढ़िए फिर किसी को सुनिए उसके बाद फ़ैसला कीजिए कि अपने आप को बस खुश रखना है या हक़ से रूबरू कराना है। 

ईद मुबारक !

इब्ने जावेद

Comments

Popular Posts